Friday, November 2, 2012

एक चिकना मौन / अज्ञेय


एक चिकना मौन
जिस में मुखर-तपती वासनाएँ
दाह खोती
लीन होती हैं ।
     उसी में रवहीन
     तेरा
     गूँजता है छंद :
     ऋत विज्ञप्त होता है ।

एक काले घोल की-सी रात
जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्त्तियाँ
सब पिघल जातीं
ओट पातीं
एक स्वप्नातीत, रूपातीत
पुनीत
गहरी नींद की ।
     उसी में से तू
     बढ़ा कर हाथ
     सहसा खींच लेता-
     गले मिलता है ।

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