Saturday, July 23, 2016

साईन्स कॉलेज पटना का अतीत

कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पर अंत ..। मन दुविधा में है । मेरी इस सुनहरी यात्रा के अनेक संस्मरण आज मॉर्निंग वॉक पर नहीं जाने के क्रम में मन मष्तिष्क में ज्वार की तरह हिलोरें मारने लगा है जिसके कारण मैं मुखातिब हो रहा हूँ । इस यात्रा की शुरुआत महान् फिल्मकार की जीवनभर की अनमोल गुरुदत्त की कागज़ के फूल फिल्म की दो पंक्ति के साथ शुरु कर रहा हूँ...
देखी इस ज़माने की यारी,
 बिछड़े सभी बारी बारी।
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मैंने मैट्रिक में कभी नहीं सोंचा था कि I Sc में मेरा दाखिला पटना साईन्स कॉलेज में होगा परन्तु मैंने पार्वती देवी उच्च विद्यालय , जमालपुर का इतिहास रचकर 1978 में 764/900 प्राप्तांक लाकर इस दौड़ में शामिल हो गया । शुरु में छात्रावास विलम्ब से मिलने के कारण मुसल्लहपुर, पटना के एक लॉज में श्रवण कुमार के साथ दो बेड रुम के लॉज में एक महीना समय व्यतीत किया ।
साईन्स कॉलेज में प्राप्तांक के अनुसार मुझे दो बेड का कैवेंडिश में कमरा आवंटित हुआ । मैं साईन्स कॉलेज में दाखिला और कैवेंडिश में कमरा मिलने से रोमांचित था ।कागज़ के पन्ने में मैं इस रोमांच का वर्णन करने में असमर्थ हूँ । अब शुरु हुआ मेरा छात्रावास में रहकर माता पिता की छत्र छाया से अलग रहकर जीवन की प्रथम विरह मिश्रित आजाद ख्याल के साथ आनंदित यात्रा की शुरुआत ।
यहाँ अरुण प्रसाद और संजय कुमार झा नेतरहाट से आये थे, अर्चना भागलपुर से जी डी एस में रहती थी, शकील अख्तर लहेरियासराय, प्रवीण कुमार बेगूसराय, अनूप कुमार और श्री निवास,बेतिया,गोपाल कुमार अग्रवाल बरौनी, विनय कुमार मिश्रा , अशोक कुमार सिंह, तपेश्वर दयाल और भीम सिंह जिला हाई स्कूल हजारीबाग, रामेश्वर यादव, बिनय कुमार ठाकुर, अमर नाथ ठाकुर, पवन विदेह युग्म भाई और संजय झा मधुबनी, दो जुड़वाँ भाई छपरा से आये थे । भीम सिंह फैराडे में रहते थे । कुछ दोस्तों का नाम 36 साल बीतने के बाद संस्मरण में नहीं है जिसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ ।
मेरा अधिकांश समय बिनय कुमार मिश्रा, रामेश्वर यादव, अनूप कुमार, अशोक कुमार सिंह, तपेश्वर दयाल, प्रवीण, संजय झा मधुबनी, भीम सिंह..आदि दोस्तों के साथ व्यतीत होता था ।
बिनय कुमार मिश्रा के साथ मेरी दोस्ती एक जान दो दिल के तरह की व्याख्या वाली मित्रता थी । मुझको विनय कुमार मिश्रा जी के साथ मित्रता गाढ़ी होने के कई वजह थे । हम दोनों को गायन में खासी अभिरुचि थी । विचारों में  मेल के साथ साथ हम दोनों पुरानी 50 के दशक की फिल्मों के शौक़ीन थे साथ साथ हम दोनों को वर्तमान काल खंड में अमिताभ वच्चन की फिल्मों से अधिक अभिरुचि धर्मेंद्र की फिल्म में था पर प्रथम च्वाईस पुरानी ब्लैक एंड वाइट फिल्म ही थी । उस ज़माने में मॉर्निंग और नून शो में हरेक सिनेमा हॉल में पुरानी फिल्म लगती थी साथ हीं साथ अवकाश के दिनों में पटना कॉलेज और रमना रोड आदि स्थानों पर रात में पुरानी फिल्म प्रोजेक्टर से दिखाया जाता था । फिल्मों देखने के सफर को कहाँ से शुरु करूँ समझ में नहीं आता है परंतु उस काल में हम दोनों प्रत्येक फिल्म की विवेचना इस रूप में करते थे कि कितना फिल्म में गाना है और कौन कौन गायक है, फ़िल्मकार, निर्देशक, हीरो, हीरोइन, म्यूजिक डायरेक्ट, गीतकार इन सबके प्रत्येक छुए अनछुए गतिविधि की सप्रसंग व्याख्या करते थे । खैर गायन के क्षेत्र में बिना म्यूजिक सीखे अलाप और मिठास के साथ हूबहू मुहम्मद रफ़ी, बड़े गुलाम अली, मन्ना डे, मुकेश, तलत महमूद, एस डी वर्मन, किशोर कुमार...के गानों को बिनय कुमार मिश्रा से अच्छा गाते मैंने किसी को नहीं सुना हूँ । मैं उस समय में लाता मंगेशकर, रफ़ी,  मुकेश की गानों को गाया करता था पर मेरा पसंदीदा क्षेत्र लता मंगेशकर जी का गाना था ।

आज भी याद है हमलोगों से दो साल सिनीयर अजय जी वरसात के समय में गंगा तैरने गए थे और पुनः वापस नहीं लौटे । अजय जी माता पिता के इकलौता पुत्र थे और गत रविवार को हॉस्टल में मुकेश के " हम छोड़ चले इस महफ़िल को याद आये कभी तो मत रोना.." गाना की गायन के बाद हमेशा के लिए काल के गाल ने निगल लिया । आज भी उनकी स्मृति यादकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।

गंगा कृष्णा घाट का सैर, यूनिवर्सिटी पुस्तकालय में पढ़ने, रमना रोड की चाय की चुश्की, पटना कॉलेज का जलेवा ...अंतःकरण को मरोड़ते रहता है । एक बार की बात है कि मेरे पिताजी मुझसे मिलने आये उस वक्त मैं वॉली वाल खेल रहा था। पिताजी उल्टे पाँव घर लौटकर मेरी माँ को पढ़ाई के स्थान पर खेल में अभिरुचि कहकर अब तक हमेशा उलाहना देते रहते हैं । विनय कुमार मिश्रा के पिताजी जब पुत्र से मिलने आये तब हम दोनों धर्मेंद्र की दो चोर फिल्म देखने के लिए हॉस्टल से बाहर थे ।

हमलोगों का शौक भी अजीब था गर्मी के दिनों में रामेश्वर भाई, अनूप, विनय कुमार मिश्रा, तपेश्वर दयाल प्रत्येक दिन शाम में दो दो घंटे कृष्णा घाट के पास गंगा स्नान और तैरने में समय व्यतीत करते थे ।आलम तो यह था कि मैं तैरना नहीं जानता था और यहीं तैराकी सीखकर गंगा नदी को तीन बार इस पार से उस पार गया हूँ । खैर जिंदगी सलामत है । तैरने में महारत रामेश्वर यादव को थी और वह मेरे तैराकी गुरु भी ।
रामकृष्ण मिशन के विचारों से ओत प्रोत होकर, परमहंशजी, माँ शारदा और विवेकानंद के जन्म दिन के अवसर के अलावे कई और दिनों में नाला रोड़ अवस्थित आश्रम में जाकर ध्यान, योग, सेवा में कई बार सम्मिलित हुआ था । रामेश्वर जी उर्फ़ महात्मा का इसमें अभिरुचि और तल्लीनता देखकर हमलोग हतप्रभ रहते थे ।

इन संस्मरणों को पूर्ण विस्तारित बखान से उपन्यास भी छोटा पड़ जाएगा। मैं देवदास की तरह D सेक्शन की एक लड़की को रोज चोरी चोरी, चुपके चुपके, छुपकर देखने जाया करता था । बाद में डॉक्टर बनकर पारिवारिक जीवन में व्यस्त है ।मैं उसका नाम बताने में चोरी कर रहा हूँ । लेकिन यह प्यार मूक बधिर फिल्म की तरह था ।
बातें तो बहुत करनी थी लेकिन आज के लिए इतना ही काफी है ।