Monday, March 25, 2013

होली की आहट पर सभी दोस्तो को नमस्कार, जोगी रा .......... सरररर ............



बिहार में भी हमलोगों ने पारम्परिक होली मनाने का तरीका छोड़ दियें हैं. सुबह सुबह कादो माटी वाली होली की महक( सुगन्ध/दूर्गन्ध सहित) सबको पता नहीं प्यारा लगता था या नहीं पर इस में सब अपने को सरावोर कर लेते /देते थे. जो दोस्त जितना कोदो से भागते थे कादो उसको उतना ही पिछा करता था . रंग से ज्यादा गहरा दाग हमलोग प्रकृति की बनी कादो से लोगों के मन मंदिर में पुरे वर्ष भर के लिए डाल देते थे . नाली में सना कीचड़युक्त गन्दगी जब दोस्तोँ के बदन पर गुनगुना सर्दी में अर्थात होली में डालते थे तब असल होली की गरमाहट सुरु होती थी. कीचड के जस्ट बाद अर्थार्त उसके साथ रंग की मिलन अह्ह्ह्ह ... अदभुत...अद्वितीय . 






अगर इनसब में शुरुआत बसिऔर झोर- भात बजका, बजका में फूलगोबी, कद्दू, कचरी/प्याजी, बैगन, हरा चना ,टमाटर,हरा मिर्च  .......हरा चना का बजका अगर साल भर मिले तो मैं अपने आप को धन्य समझूंगा . लिखने समय मेरी अर्धांगिनी जिसके लिए यह कंप्यूटर उनको सौतन की तरह सालती है आपने भाई के यहाँ जाने के लिए उतावली हो रही है इसलिए दोस्तोँ बाकी कल ....माफ कीजिये अभी तो लय - सुर-  ताल धरा ही था ..यही होता है जब आपलोगों से मिलने का मौका मिलता है तब ...... have a good day


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......अब क्या बताउँ फिर मुखातिब हुआ हूँ आप से . अरे भाई, अब तो समझे न ...
"हे ज़ज्मानी,  तोरे सोने के किवाड़ी , एक गन्डा  गोइठा द....." भूल गए क्या.......क्या बात है अब तो इस माहौल को खोजना भी सम्भव नहीं है . उकवारी याद आया न . अरे भाई उकवारी भांजने और उसको दूसरे ग्राम के खंधे के सिमाने में नचाते हुए फेंकने और अगजा में गेहूँ की वाली और चना का होरहा का मज़ा ...आया मूहं में पानी ... हमलोग इस पश्चात्य संस्कृति में अपना वजूद और दालान संस्कृति भी भूल ही नहीं गए वल्कि आनेवाले बंसजों  को शायद इन सब यथार्थ को समझा भी पाए तो बहुत है.



क्रमशः

जोगी रा .......... सरररर ............


होली की आहट पर सभी दोस्तो को नमस्कार
सोची किसी अपने से बात करें;

अपने किसी ख़ास को याद करें;

तो दिल ने कहा क्यों ना अपने आपसे शुरुआत करें।
होली मुबारक।

पुनः मुखातिब हुआ हूँ . होली के रंग में प्रवेश करने में थोड समय लगता है , परन्तु एक बार अगर रंग लगा तो वह दाग वहीँ तक सिमीत नहीं रहेगा वल्कि उस रंग में और डूबना शुरु कर दीजिएगा. आपलोगों से आग्रह है / नम्र निवेदन है की आप भी इस पारम्परिक भारतीय संस्कृति को पुरे मन से अपनाएं / मनाएं .
महिलाओं की होली...अह्ह्ह्हह्ह . भारतीय संस्कृति में सबसे पिछड़ा अगर कोई जाति/समाज है तो वह है महिला समाज . महिलाओं के साथ अत्याचार/ दुर्वयवहार /सौतेलापन /प्रताड़ना ....इस पुरुष वर्ग द्वारा सदियों काल से चलता आ रहा है . कहते तो नारी को शक्ति हैं लेकिन वयवहार ......जनम से अंत अर्थार्त मरण तक इस अबला की पीड़ा को कोई बखान नहीं कर सकता है. खैर मैं किस पचड़े में उलझ रहा हूँ . कहीं इस अभिव्यक्ति पर पुरुष का वर्त्तमान अहंकारी / दमनकारी समाज दुसरे रूप में न ले .ऐसी बात नहीं है की मैं उससे अलग हूँ . 
अब लीजिए महिलाओं की होली ........महिला का भी दिल होता है ...जो मचलता भी होगा . पर अभिव्यक्ति की कोई स्वछंदता नहीं. कुलटा कहलाने का भय है . पर मेरी होली का आगाज़ /शुरु जहाँ से हो अंत तो प्रेयसी से ही होना है ....कुछ लोग निचे लिखे गाने के बोध लेकर होली मानते हैं, 

"रंग बरसे भीगे चुनरवाली, रंग बरसे
अरे कैने मारी पिचकारी तोरी भीगी अंगिया
ओ रंगरसिया रंगरसिया, हो................"

तो कुछ लोग (एकतरफा प्रेमी) गम के सहारे 

"तनहाई ले जाती है जहाँ तक याद तुम्हारी;
वहीँ से शुरू होती है जिंदगी हमारी;
नहीं सोचा था हम चाहेंगे तुम्हें इस कदर;
पर अब तो बन गए हो तुम किसमत हमारी।"

जैसे मेरा होली के नाम बोध से दिल में गुदगुदी होती है वैसी ही गुदगुदी तमाम भौजाईओं / सालियों /माशूकाओं /ननदों /देवरों .....को भी होता होगा . अंग / प्रत्यंग में सिहरन होता होगा . अरे भाई बचपन से जवानी तक के किस्से अगर सुनाऊँ तो या तो आप विश्वास नहीं करेंगे अगर करेगें तो समाज को दिखलाने वास्ते मेरी भावना को निर्लज्जता की चादार में लपेट कर मेरी थोड़ी बहुत बची हुई इज्ज़त का फालूदा निकालेंगे .

पिताजी की होली...............
"होली आई रे कन्हाई रंग भर दे
सुना दे जरा बांसुरी , होली आई रे कन्हाई ..."


मेरी होली ..........

"आज न छोड़ेगें बस हम होली , 
खेलेगें हम होली होली रे , 
खेलेगें हम होली......"



चुनरी, अंगिया, यौवन ...और सबसे बड़ा होली तो यह है कि "अन्तः मन को भिंगो कर पूरी ज़िन्दगी उन ख्यालों / ख्वावों के आशियाने को निहारते रहेंगे जिसमे जिस्म को मन के साथ डबोने के बाद मानस पटल पर एक स्मृति चिन्ह जीवनपर्यंत रेखांकित करेगी .
सुप्रभात