Saturday, December 14, 2019
नागरिकता संशोधन विधेयक
नागरिकता संशोधन विधेयक
इसमें कोई दो रॉय नहीं है कि CAB पूर्णतया राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु इस्तेमाल के लिए एक ब्रहास्त्र चलाया गया है ।
बैसे भारतीय को दूसरे देशों से आनेवालों की अचानक चिन्ता व्यक्त करना कहीं से यथोचित जान नहीं पड़ता है । कोई देश अपनी पूरी समस्याओं से निजात कर ले तब दूसरे देश से आनेवाले की सुध सोंच सकता है । यहाँ तो मेरे देश में ही भुखमरी, बेरोजगारी, महिला उत्पीड़न, वर्ग उत्पीड़न, जात उत्पीड़न, किसान आत्महत्या, शिक्षा, स्वास्थ्य ...... से जुड़ी अनेकों समस्या सुरसा की तरह मुँह वाये खड़ी पड़ी है ।
कोई व्यक्ति खुद फटा पुराना, चिथड़ा कपड़ा पहननेवाला दूसरों को कपड़ा देगा तब समाज उसको नाटक की संज्ञा से नवाजेगा ।
अब कुछ लोग यह कहेगें कि दूसरा वह दूसरा नहीं खुद स्वयम है । यह सत्य है कि 1947 में पाकिस्तान का बंटवारा दो राज्यो के सिद्धांतों पर ही क्रियान्वयन हुआ है जिसका मास्टर स्ट्रोक मोहम्मद जिन्ना का था । लेकिन यह भी सच है कि जो पाकिस्तान में बचे रह गए चाहे हिन्दू हो या मुसलमान वह दो राष्ट्र के सिद्धांत को मानकर इस्लाम देश पाकिस्तान में रह गए । यह भी सच है कि जो पाकिस्तान में है उनका भी देश की आज़ादी में अहम भूमिका थी । अब जो पाकिस्तान या अफगानिस्तान या अमेरिका या चीन या ..... में है वह व्यक्ति अपने फायदे के हिसाब से उन देशों में रहना पसंद किया है । जब किसी अन्य देश मे किसी को परेशानी हो रही है और वह भागकर किसी दूसरे देश मे आना चाहता है तब उसके बारे में किसी दूसरे देश को सोंचना जबकि स्वयम समस्या से ग्रस्त हो तो सोंचने का मतलब निश्चित मौकापरस्ती या अवसरवादिता या राजनीतिक मतलब ही हो सकता है दूसरा कुछ नहीं । यहाँ दूसरे देश को किस व्यक्ति को लिया जाय इसके लिए peak and choose का मापदण्ड ही राजनीतिक ब्रहास्त्र है ।
देश के किसी भी व्यक्ति को डरने की आवश्यकता है ही नहीं । यह हिंदुओ के साथ साथ कुछ धर्म विशेष मुसलमान को छोड़कर तुष्टीकरण की नीति है । अब भारत के मुसलमान को सीरिया या पाकिस्तान या अमेरिकी नागरिकों में से किसे लिया जाय किसे न लिया जाय उससे क्या फर्क पड़नेवाला है । भारतीयों के लिए CAB है ही नहीं । यह तो पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, अफगानिस्तानी हिंदुओ, पारसियों, सिखों, जैनिज़्म, बुद्धिज़्म लोगो को तुष्टिकरण की नीति है जो सैद्धांतिक रुप में नहीं होना चाहिए था ।
पर एक समस्या है कि पाकिस्तान , बांग्लादेश, अफगानिस्तान में मुसलमान से अन्य जातियों को प्रताड़ना मिलता हो तो उसे कहाँ शरण देनी चाहिए ? वैसे आज का भारत कल का हिन्दुस्तान था जिसके सन्तान सभी थे परन्तु पाकिस्तान बांग्लादेश के कारण हिन्दुस्तान भारत बना । मुसलमान के लिए तो पाकिस्तान और बांग्लादेश बना ही है , पर भारत उन देशों के अल्पसंख्यक जो कभी भूल कर two nation theory में चला गया है और स्वेच्छा से पुनः वापसी चाहता है उसकी घर वापसी है । इसमें भारतीय मुसलमान को चिंता करने की जरुरत है ही नहीं । पर असल में है यह तुष्टीकरण । यह भी सत्य है कि पीड़ित अल्पसंख्यक जाए कहाँ क्योंकि हिन्दू, जैन, पारसी, सिख, बुद्ध का कोई देश है ही नहीं ? पर अपने पीड़ित नागरिक को छोड़कर अन्य देश के पीड़ित के बारे में सोंचना ही तुष्टीकरण है ।जो स्वयम अपनी समस्या से जूझ रहा हो वह दूसरों की समस्या को कैसे दूर कर सकता है ।
अपनी पत्नी को बातचीत, व्यबहार, जेवर- कपड़े ..... के लिए तरसाओ.. फटकारों और यह कहो कि आर्थिक तंगी है और दूसरे की विधवा वीवी को सैर सपाटे के लिए रुपया बाँटो ....। लोग क्या कहेगें ? निश्चित पागल । दानवीर कोई नहीं कहेगा । हाँ वेवा जरुर दानवीर कहेगी । अब सोंचिये आपके बच्चे की स्कूली शिक्षा भी प्रभावित हो सकती है । एक और बात सोंच लीजिए , जो अपना न हो सका वह दूसरों का क्या होगा । इस उदाहरण में लोग दानवीर को अय्यास कहेगें ।
शर्म तो देश के नागरिकों से आती है जो अपनी भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, बीमारी.... को भूल कर पड़ोस से आनेवालों को रसगुल्ला देने को राष्ट्र भक्ति या देशहित कहते हैं ।
यह शुद्ध रुप में राजनीतिक औज़ार है जिससे देश के लोगों को समस्या से हटाकर धर्म की चाशनी पिलाकर मदहोश किया जा सके ।
Saturday, November 16, 2019
भारतीय शिक्षा पद्धति एक विवेचना
शिक्षा
भारत की सभ्यता, साहित्य,सहिष्णुता, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, परम्परा, विविधता...... शताब्दियों से चली आ रही है । शिक्षा के अभाव में देश की विकास और तरक्की निर्भर करता है । बौद्धिक सम्पदा ही आधुनिक हथियार है जिससे देश के नागरिकों को आधुनिकता के साथ सर्वांगीण विकास सम्भव है । देश की संप्रभुता को अच्छूण रखने के लिए शिक्षा एक अतिमहत्वपूर्ण कारक है । देश के मूल्य, लोकतंत्र, संविधान, अखंडता .... शिक्षा के अभाव में सम्भव है ही नहीं ।
उपयुक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार के रुप में परिभाषित किया है ।
भारतीय संस्कृति, सभ्यता, सम्प्रभुता, भईचारा, सम्पन्नता..... की चकाचौंध को देखकर सदियों से विदेशी आक्रांता द्वारा भारत पर राज्य करने की लिप्सा के कारण कई मर्तबा विदेशी हमला का सामना करते हुए परतंत्र होना इतिहासकार द्वारा विश्लेषित तथ्य माना गया है ।
आजादी के पूर्व अंग्रेजो द्वारा दीर्घकालिक रुप से भारत को अंग्रेजों के उपनिवेश के रुप में शोषण के उद्देश्य से योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजों के द्वारा भारतीय विविधताओं के विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण किया गया था । विश्लेषण में लार्ड मैकाले के अध्ययन को सर्वकालिक सटीक पाया गया । मैकाले के अनुसार भारत को लंबे अरसे तक गुलाम बनाये रखने के लिए भारत के अपनेपन, भाईचारा, समृद्धि, सांस्कृतिक बनावट, देशभक्ति, सहिष्णुता, विविधता, सर्वधर्मसमभाव के पीछे मात्र एक कारण बुनियादी शिक्षा से लेकर सामाजिक, धार्मिक, आयुर्वेदिक, उच्च, शिक्षा को जवाबदेह माना था । फिर शुरु किया भारतीय शिक्षा पद्धति में अंग्रेजी पद्धति की मिलावट और राष्ट्रीयता में अंग्रेजियत अर्थात भौतिकतावाद की मिलावट की शुरुआत । जो अंग्रेजी सूट बूट या अंग्रेजी बोलेगा वह अधिक योग्य कहलायेगा । इससे भारतीयों में हीन भावना विकसित होने लगा साथ ही साथ शिक्षा पद्धति में बदलाव के प्रति भारतीयों की रुचि धीरे धीरे बढ़ने लगी ।
आजाद भारत में संविधान ने सभी नागरिकों को शिक्षा का मौलिक अधिकार माना है । परन्तु खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि, आज भी भारतीय शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित है । यहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जब तक बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक प्रत्येक नागरिकों को मुफ्त सामान अवसर से सुसज्जित नहीं की जाएगी तबतक देश की अखंडता को अच्छूण बनाया जाना एक दुरूह कार्य ही रहेगा । अंग्रेजों के उपनिवेशवाद की समाप्ति के पश्चात भी निजी शिक्षा का प्रसार देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति की कलई खोलता है । आज भी आर्थिक रुप में विपणन और सामर्थ्यवान की शिक्षा का मापदंड अलग अलग है । इस सोंच ने शिक्षा को एक व्यवसाय के रुप में उद्योग के रुप में फलना फूलना गंभीर संकट की तरफ इशारा करता है । अब सामर्थ्यवान शिक्षा पर किये जानेवाले खर्च को सही ठहराने लगे हैं जो पुनः अंग्रेजी मानसिकता की याद दिलाता है ।
भारत की सभ्यता, साहित्य,सहिष्णुता, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, परम्परा, विविधता...... शताब्दियों से चली आ रही है । शिक्षा के अभाव में देश की विकास और तरक्की निर्भर करता है । बौद्धिक सम्पदा ही आधुनिक हथियार है जिससे देश के नागरिकों को आधुनिकता के साथ सर्वांगीण विकास सम्भव है । देश की संप्रभुता को अच्छूण रखने के लिए शिक्षा एक अतिमहत्वपूर्ण कारक है । देश के मूल्य, लोकतंत्र, संविधान, अखंडता .... शिक्षा के अभाव में सम्भव है ही नहीं ।
उपयुक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार के रुप में परिभाषित किया है ।
भारतीय संस्कृति, सभ्यता, सम्प्रभुता, भईचारा, सम्पन्नता..... की चकाचौंध को देखकर सदियों से विदेशी आक्रांता द्वारा भारत पर राज्य करने की लिप्सा के कारण कई मर्तबा विदेशी हमला का सामना करते हुए परतंत्र होना इतिहासकार द्वारा विश्लेषित तथ्य माना गया है ।
आजादी के पूर्व अंग्रेजो द्वारा दीर्घकालिक रुप से भारत को अंग्रेजों के उपनिवेश के रुप में शोषण के उद्देश्य से योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजों के द्वारा भारतीय विविधताओं के विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण किया गया था । विश्लेषण में लार्ड मैकाले के अध्ययन को सर्वकालिक सटीक पाया गया । मैकाले के अनुसार भारत को लंबे अरसे तक गुलाम बनाये रखने के लिए भारत के अपनेपन, भाईचारा, समृद्धि, सांस्कृतिक बनावट, देशभक्ति, सहिष्णुता, विविधता, सर्वधर्मसमभाव के पीछे मात्र एक कारण बुनियादी शिक्षा से लेकर सामाजिक, धार्मिक, आयुर्वेदिक, उच्च, शिक्षा को जवाबदेह माना था । फिर शुरु किया भारतीय शिक्षा पद्धति में अंग्रेजी पद्धति की मिलावट और राष्ट्रीयता में अंग्रेजियत अर्थात भौतिकतावाद की मिलावट की शुरुआत । जो अंग्रेजी सूट बूट या अंग्रेजी बोलेगा वह अधिक योग्य कहलायेगा । इससे भारतीयों में हीन भावना विकसित होने लगा साथ ही साथ शिक्षा पद्धति में बदलाव के प्रति भारतीयों की रुचि धीरे धीरे बढ़ने लगी ।
आजाद भारत में संविधान ने सभी नागरिकों को शिक्षा का मौलिक अधिकार माना है । परन्तु खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि, आज भी भारतीय शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित है । यहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जब तक बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक प्रत्येक नागरिकों को मुफ्त सामान अवसर से सुसज्जित नहीं की जाएगी तबतक देश की अखंडता को अच्छूण बनाया जाना एक दुरूह कार्य ही रहेगा । अंग्रेजों के उपनिवेशवाद की समाप्ति के पश्चात भी निजी शिक्षा का प्रसार देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति की कलई खोलता है । आज भी आर्थिक रुप में विपणन और सामर्थ्यवान की शिक्षा का मापदंड अलग अलग है । इस सोंच ने शिक्षा को एक व्यवसाय के रुप में उद्योग के रुप में फलना फूलना गंभीर संकट की तरफ इशारा करता है । अब सामर्थ्यवान शिक्षा पर किये जानेवाले खर्च को सही ठहराने लगे हैं जो पुनः अंग्रेजी मानसिकता की याद दिलाता है ।
Thursday, August 15, 2019
अर्थव्यबस्था या विनाश
5 billion US$ भारतीय अर्थव्यवस्था की चाहत में पहले ही 45 वर्ष में सबसे ज्यादा सांगठनिक, निजी एवम सरकारी नौकरियों के पदों में बहाली के अभाव के साथ साथ बेरोजगारी के दर में बढोत्तरी से देश बुरी तरह प्रभावित है ।
पहले ही निजी हाउस कॉन्सट्रक्शन उद्योग चेंरे की चाल से रेंग रहा है । इधर कई और उद्योग इस मंदी की चपेट में झुलस रहा है । आंकड़ों के हिसाब से Realty, Automobile, Steel, Infrastructure ... आदि सेक्टर में मंदी के चपेट से लाखों कर्मचारियों के नौकरी जाने का भय व्याप्त है ।
PSU सेक्टर के साथ साथ केंद्रीय सरकारी नौकरी में एक नए सिद्धांत के अनुसार दक्षता मूल्यांकन से 55 वर्ष के पश्चात उच्च पद पर आसीन प्रशासक किसी को हटाकर अपनी ईगो शांत कर लेगें । नौकरी जाने के insecurity से लाखों करोड़ों कर्मचारी के दक्षता से सरकारी कार्य को कुप्रभावित होने से ईश्वर ही बचा सकते हैं ।
विमानन उद्योग के दो बड़े निजी निकाय JET, INDIGO के वित्तीय कुप्रभाव से असमंजस की स्थिति बनी हुई है ।
एक नई नीति के तहत IAS के संयुक्त सचिव स्तर के पदों को बिना मेधा आधारित परीक्षा एवम समाजिक आर्थिक आरक्षण के अंतर्वीक्षा से लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर आसीन किया जाना शुरु है ।
अर्थव्यबस्था का यह हाल है कि GST को आज तक प्रासंगिक नहीं बनाया जा सका है । भारतीय अर्थव्यवस्था के राजस्व दरों और नीतियों से विदेशी पूंजी प्रवाह में कमी आना शुरु हो गया है ।
बैंकों के NPA में कमी के आसार नहीं दिख रहे हैं । नकद पूंजी प्रवाह के कठोर नियम के कारण भुगतान संतुलन प्रभावित है; जिससे देशी उद्यमी को वित्तीय नुकसान के साथ साथ गैर सरकारी गैर सांगठनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर समाप्त हो गया है ।
राष्ट्रीय PSU को निजी क्षेत्रों में दिए जाने से भविष्य में घाटा तो कम की जा सकती है; परन्तु बेरोजगारी से देश मे अर्थव्यवस्था में कमी आना लाजिमी है ।
म्यूच्यूअल फण्ड और शेयर में लांग टर्म कैपिटल गेन पर टैक्स से धीरे धीरे छोटे निवेशक का शेयर मार्केट से पलायन शुरु होने लगा है । PPF में लांग टर्म कैपिटल गेन पर टैक्स के समाचार आये दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होने से नौकरी पेशा के लोग अनमनस्यक मन से इन्वेस्ट करने के कारण पूंजी जमा प्रभावित होने लगा है ।
सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्रों में डायरेक्ट सेविंग खाता में; आधार BASED छूट या लाभ दिए जाने से एक तरफ तो भ्रष्टाचार में कमी दिख रही है; पर पूर्ववर्ती सरकारों की तरह गैर योजना वित्तीय घाटा में कमी के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं ।
कृषि क्षेत्र प्रकृति आधारित होने के कारण आपदाओं से भारतीय 60 प्रतिशत जनता की अर्थव्यवस्था पर सरकार की कोई ठोस नीति नहीं है । अलबत्ता इस सेक्टर के लोगों को बिना किसी कृषि नीति और अध्ययन के सभी लोगों को मासिक पेंशन से इस सेक्टर में जड़ता आने की पूरी गुंजाईश प्रतीत है ।
इस प्रकार अगर 5 billion US $ की अर्थव्यबस्था पहुँचकर भी भारत में बेरोजगारी, भुखमरी, कृषि विकास, अशिक्षा, सामाजिक असंतुलन ... आदि से निजात सदैव दिवास्वप्न रह जायेगा और दो भारत का निर्माण होगा , एक समृद्ध भारतऔर दूसरा दीन भारत पर हम कहलायेंगे भारतीय ।
पहले ही निजी हाउस कॉन्सट्रक्शन उद्योग चेंरे की चाल से रेंग रहा है । इधर कई और उद्योग इस मंदी की चपेट में झुलस रहा है । आंकड़ों के हिसाब से Realty, Automobile, Steel, Infrastructure ... आदि सेक्टर में मंदी के चपेट से लाखों कर्मचारियों के नौकरी जाने का भय व्याप्त है ।
PSU सेक्टर के साथ साथ केंद्रीय सरकारी नौकरी में एक नए सिद्धांत के अनुसार दक्षता मूल्यांकन से 55 वर्ष के पश्चात उच्च पद पर आसीन प्रशासक किसी को हटाकर अपनी ईगो शांत कर लेगें । नौकरी जाने के insecurity से लाखों करोड़ों कर्मचारी के दक्षता से सरकारी कार्य को कुप्रभावित होने से ईश्वर ही बचा सकते हैं ।
विमानन उद्योग के दो बड़े निजी निकाय JET, INDIGO के वित्तीय कुप्रभाव से असमंजस की स्थिति बनी हुई है ।
एक नई नीति के तहत IAS के संयुक्त सचिव स्तर के पदों को बिना मेधा आधारित परीक्षा एवम समाजिक आर्थिक आरक्षण के अंतर्वीक्षा से लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर आसीन किया जाना शुरु है ।
अर्थव्यबस्था का यह हाल है कि GST को आज तक प्रासंगिक नहीं बनाया जा सका है । भारतीय अर्थव्यवस्था के राजस्व दरों और नीतियों से विदेशी पूंजी प्रवाह में कमी आना शुरु हो गया है ।
बैंकों के NPA में कमी के आसार नहीं दिख रहे हैं । नकद पूंजी प्रवाह के कठोर नियम के कारण भुगतान संतुलन प्रभावित है; जिससे देशी उद्यमी को वित्तीय नुकसान के साथ साथ गैर सरकारी गैर सांगठनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर समाप्त हो गया है ।
राष्ट्रीय PSU को निजी क्षेत्रों में दिए जाने से भविष्य में घाटा तो कम की जा सकती है; परन्तु बेरोजगारी से देश मे अर्थव्यवस्था में कमी आना लाजिमी है ।
म्यूच्यूअल फण्ड और शेयर में लांग टर्म कैपिटल गेन पर टैक्स से धीरे धीरे छोटे निवेशक का शेयर मार्केट से पलायन शुरु होने लगा है । PPF में लांग टर्म कैपिटल गेन पर टैक्स के समाचार आये दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होने से नौकरी पेशा के लोग अनमनस्यक मन से इन्वेस्ट करने के कारण पूंजी जमा प्रभावित होने लगा है ।
सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्रों में डायरेक्ट सेविंग खाता में; आधार BASED छूट या लाभ दिए जाने से एक तरफ तो भ्रष्टाचार में कमी दिख रही है; पर पूर्ववर्ती सरकारों की तरह गैर योजना वित्तीय घाटा में कमी के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं ।
कृषि क्षेत्र प्रकृति आधारित होने के कारण आपदाओं से भारतीय 60 प्रतिशत जनता की अर्थव्यवस्था पर सरकार की कोई ठोस नीति नहीं है । अलबत्ता इस सेक्टर के लोगों को बिना किसी कृषि नीति और अध्ययन के सभी लोगों को मासिक पेंशन से इस सेक्टर में जड़ता आने की पूरी गुंजाईश प्रतीत है ।
इस प्रकार अगर 5 billion US $ की अर्थव्यबस्था पहुँचकर भी भारत में बेरोजगारी, भुखमरी, कृषि विकास, अशिक्षा, सामाजिक असंतुलन ... आदि से निजात सदैव दिवास्वप्न रह जायेगा और दो भारत का निर्माण होगा , एक समृद्ध भारतऔर दूसरा दीन भारत पर हम कहलायेंगे भारतीय ।
Saturday, April 20, 2019
राजनीति की मजबूरी
राजनीति की मजबूरी
राजनीति एक चौसर का खेल है चाहे राजतंत्र हो या लोकशाही या अराजकशाही ।
कुछ लोग भ्रम पाल रखे हैं कि लोकशाही में चौसर का खेल नहीं खेला जाता है और टकटकी लगाए बैठे इस उम्मीद में है कि लोकशाही में हम कामयाब होंगे ।
कुछ लोग यह भी मान बैठे हैं कि फ़लाँ व्यक्ति लोकशाही के लिए एक ईमानदार, आदर्श, देशभक्त, सर्वकालिक महान जन नेता है ।
मैं मान चुका हूँ कि राजनीति और कूटनीति में चोली दामन का सम्बंध है । इसे मजबूरी कह सकते हैं अर्थात मजबूरी की राजनीति ।
पर मेरी समझ से आजकल राजनीति के लिए सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीति की मजबूरी बन गयी है । राजनीति की इस मजबूरी में लोकशाही, संस्था, न्याय, विकास, देशभक्ति, राष्ट्रीयता, बेरोजगारी, गरीबी सभी इस प्रकार के शब्दों का मायने हर कोई अपने हिसाब से गढ़ना शुरु कर देता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
हर कोई राजनीति की इस मजबूरी में अपने लिए एक व्यक्ति को प्रतीक मानकर लोकशाही में भगवान मान लेता है । पर प्रश्न है कि देश की कोई तो संस्कृति होगी, कोई तो एक चीज़ देश के लिए आदर्श होगा जिससे प्रतीक माना जायेगा ।
वर्तमान में कई गांधी तक को आलोचना करते नहीं थकता है । आलोचना तो छोड़िए अपशव्दों की भी एक सीमा होती है , सरेआम सार्वजनिक रुप में शव्दों का प्रयोग करना शुरू हो गया है । हम अपने को श्रेष्ठ समझ बैठे हैं और कोई भी फैसला लेकर थोप देते हैं और दल के भीतर कोई अन्य को कोई की अभिव्यक्ति तो दूर परिचर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझते हैं । निर्णय सुनाने वालों का अनुयायी इस लोकशाही में तरह तरह के तर्क-कुतर्क से अपने अराध्यस्वरूप नेता को सत्य प्रमाणित कराने में सारी ऊर्जा लगाते जाता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
इस प्रकार की राजनीति, जिसमें राजनीति की मजबूरी बन गयी है, जिसमे राष्ट्र को आनेवाले समय में कुछ भी अवशेष बचाना मुश्किल हो जाएगा, के लिए सिर्फ राजनेता ही दोषी नहीं है बल्कि हम भी इस धर्मयुद्द में कौरवों का पक्ष के लिए बराबर का दोषी हैं ।
राजनीति एक चौसर का खेल है चाहे राजतंत्र हो या लोकशाही या अराजकशाही ।
कुछ लोग भ्रम पाल रखे हैं कि लोकशाही में चौसर का खेल नहीं खेला जाता है और टकटकी लगाए बैठे इस उम्मीद में है कि लोकशाही में हम कामयाब होंगे ।
कुछ लोग यह भी मान बैठे हैं कि फ़लाँ व्यक्ति लोकशाही के लिए एक ईमानदार, आदर्श, देशभक्त, सर्वकालिक महान जन नेता है ।
मैं मान चुका हूँ कि राजनीति और कूटनीति में चोली दामन का सम्बंध है । इसे मजबूरी कह सकते हैं अर्थात मजबूरी की राजनीति ।
पर मेरी समझ से आजकल राजनीति के लिए सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीति की मजबूरी बन गयी है । राजनीति की इस मजबूरी में लोकशाही, संस्था, न्याय, विकास, देशभक्ति, राष्ट्रीयता, बेरोजगारी, गरीबी सभी इस प्रकार के शब्दों का मायने हर कोई अपने हिसाब से गढ़ना शुरु कर देता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
हर कोई राजनीति की इस मजबूरी में अपने लिए एक व्यक्ति को प्रतीक मानकर लोकशाही में भगवान मान लेता है । पर प्रश्न है कि देश की कोई तो संस्कृति होगी, कोई तो एक चीज़ देश के लिए आदर्श होगा जिससे प्रतीक माना जायेगा ।
वर्तमान में कई गांधी तक को आलोचना करते नहीं थकता है । आलोचना तो छोड़िए अपशव्दों की भी एक सीमा होती है , सरेआम सार्वजनिक रुप में शव्दों का प्रयोग करना शुरू हो गया है । हम अपने को श्रेष्ठ समझ बैठे हैं और कोई भी फैसला लेकर थोप देते हैं और दल के भीतर कोई अन्य को कोई की अभिव्यक्ति तो दूर परिचर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझते हैं । निर्णय सुनाने वालों का अनुयायी इस लोकशाही में तरह तरह के तर्क-कुतर्क से अपने अराध्यस्वरूप नेता को सत्य प्रमाणित कराने में सारी ऊर्जा लगाते जाता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
इस प्रकार की राजनीति, जिसमें राजनीति की मजबूरी बन गयी है, जिसमे राष्ट्र को आनेवाले समय में कुछ भी अवशेष बचाना मुश्किल हो जाएगा, के लिए सिर्फ राजनेता ही दोषी नहीं है बल्कि हम भी इस धर्मयुद्द में कौरवों का पक्ष के लिए बराबर का दोषी हैं ।
Wednesday, April 10, 2019
भारतीय जीवन पद्धति के वैज्ञानिक दृष्टिकोण
हिंदू धर्म की इन 10 खास परंपराओं को तो विज्ञान भी करता है सलाम !
हमारे देश में जितनी विविधता देखने को मिलती है उतनी ही खास है यहां की अलग-अलग संस्कृति और परंपराएं. जी हां, हिंदू धर्म में कई ऐसी परंपराएं है जिनका पालन सदियों से होता आ रहा है.
हिंदू धर्म की परंपराओं का पालन करते हुए आज भी लोग अपने से बड़ों के पैर छूते हैं और शादीशुदा महिलाएं आज भी अपने मांग में सिंदूर जरूर लगाती हैं. इन परंपराओं के पीछे वैज्ञानिक तर्क भी मौजूद है.
चलिए हम आपको हिंदू धर्म की 10 ऐसी परंपराओं के बारे में बताते हैं जिनके पीछे छुपे तर्क को विज्ञान भी सलाम करता है.
1- पैर छूना
हिंदू धर्म की परंपराओं में अपने से बड़ों के पैर छूना भी शामिल है.
आज के इस आधुनिक युग में भी अधिकांश लोग अपने से बड़ों से मिलने पर उनके चरण स्पर्श करते हैं. इस परंपरा को विज्ञान भी सलाम करता है क्योंकि चरण स्पर्श करने से दिमाग से निकलनेवाली एनर्जी हाथों और सामने वाले पैरों से होते हुए एक चक्र पूरा करती है.
2- नमस्ते करना
जब भी हम किसी से मिलते हैं अपने हाथ जोड़कर उसे नमस्ते जरूर करते हैं. नमस्ते करने के लिए जब हम हाथ जोड़ते हैं तो हमारी उंगलियां एक-दूसरे को स्पर्श करती हैं जिससे पैदा होनेवाले एक्यूप्रेशर से हमारी आंखों, कानों और दिमाग पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
इसके अलावा हाथ मिलाने की जगह नमस्ते करने से हम सामने वाले व्यक्ति के संपर्क में नहीं आते हैं, जिसकी वजह से उसके हाथों के बैक्टीरिया हमारे संपर्क में नहीं आते हैं.
3- मांग भरना
शादीशुदा महिलाएं अपने मांग में सिंदूर भरती हैं और इस परंपरा के पीछे भी वैज्ञानिक तर्क छुपा हुआ है. बताया जाता है कि सिंदूर में हल्दी,चूना और मरकरी होता है जो शरीर के ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है. सिंदूर महिलाओं में यौन उत्तेजना बढ़ाता है जिसके चलते विधवा औरतों के सिंदूर लगाने पर पाबंदी होती है.
4- तिलक लगाना
किसी भी मांगलिक कार्य के दौरान महिलाएं और पुरुष अपने माथे पर तिलक लगाते हैं. इसके पीछे वैज्ञानिक मान्यता है कि कुमकुम या तिलक लगाने से हमारी आंखों के बीच माथे तक जानेवाली नस में एनर्जी बनी रहती है. तिलक लगाने से चेहरे की कोशिकाओं में ब्लड सर्कुलेशन बना रहता है.
5- जमीन पर बैठकर खाना
आज भी अधिकांश घरों में लोग अपने परिवार के सदस्यों के साथ जमीन पर बैठकर खाना खाते हैं. जमीन पर पालथी मारकर बैठने को एक योग आसन माना गया है. इस आसन में बैठकर खाने से दिमाग शांत रहता है और पाचन क्रिया दुरुस्त होती है.
6- कान छिदवाना
कान छिदवाना भारतीय परंपराओं में शामिल है. सदियो पुरानी इस परंपरा के पीछे जो तर्क बताया गया है उसके मुताबिक कान छिदवाने से इंसान की सोचने की शक्ति बढ़ती है. वैज्ञानिक तर्क के अनुसार कान छिदवाने से बोली अच्छी होती है और कानों से होकर दिमाग तक जानेवाली नस में ब्लड सर्कुलेशन बना रहता है.
7- सिर पर चोटी
हिंदू धर्म में आज भी अधिकांश ब्राह्मण अपने सिर पर शिखा रखते हैं. इस शिखा के बारे में कहा जाता है कि सिर पर जिस जगह पर चोटी रखी जाती है उस जगह पर दिमाग की सारी नसें आकर मिलती हैं. जो एकाग्रता बढ़ाने, गुस्से को कंट्रोल करने और सोचने की शक्ति को बढ़ाने में मदद करती हैं.
8- उपवास रखना
हिंदू धर्म में उपवास रखने की परंपरा बहुत पुरानी है. आयुर्वेद के अनुसार व्रत से पाचन क्रिया अच्छी होती है. एक रिसर्च के अनुसार व्रत रखने से कैंसर का खतरा भी कम होता है. इसके साथ ही दिल की बीमारियां और डायबिटीज जैसी बीमारियों का खतरा कम होता है.
9- तुलसी की पूजा
आज भी अधिकांश घरों में तुलसी का पौधा लगाकर उसकी पूजा की जाती है. वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार तुलसी का पौधा इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने में मदद करता है. यह एक आयुर्वेदिक औषधि भी है जिसका इस्तेमाल कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है.
10- मूर्ति की पूजा
हिंदू धर्म में लोग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मूर्ति पूजा करते हैं. मूर्ति पूजा के पीछे छुपे वैज्ञानिक तर्क के अनुसार मूर्ति दिमाग को एक जगह पर स्थिर रखने में मदद करती है.
गौरतलब है कि हिंदू धर्म में इन परंपराओं को काफी महत्व दिया गया है जिसका लोग सदियों से पालन करते आ रहे हैं और विज्ञान भी इन परंपराओं के आगे नतमस्तक है.
हमारे देश में जितनी विविधता देखने को मिलती है उतनी ही खास है यहां की अलग-अलग संस्कृति और परंपराएं. जी हां, हिंदू धर्म में कई ऐसी परंपराएं है जिनका पालन सदियों से होता आ रहा है.
हिंदू धर्म की परंपराओं का पालन करते हुए आज भी लोग अपने से बड़ों के पैर छूते हैं और शादीशुदा महिलाएं आज भी अपने मांग में सिंदूर जरूर लगाती हैं. इन परंपराओं के पीछे वैज्ञानिक तर्क भी मौजूद है.
चलिए हम आपको हिंदू धर्म की 10 ऐसी परंपराओं के बारे में बताते हैं जिनके पीछे छुपे तर्क को विज्ञान भी सलाम करता है.
1- पैर छूना
हिंदू धर्म की परंपराओं में अपने से बड़ों के पैर छूना भी शामिल है.
आज के इस आधुनिक युग में भी अधिकांश लोग अपने से बड़ों से मिलने पर उनके चरण स्पर्श करते हैं. इस परंपरा को विज्ञान भी सलाम करता है क्योंकि चरण स्पर्श करने से दिमाग से निकलनेवाली एनर्जी हाथों और सामने वाले पैरों से होते हुए एक चक्र पूरा करती है.
2- नमस्ते करना
जब भी हम किसी से मिलते हैं अपने हाथ जोड़कर उसे नमस्ते जरूर करते हैं. नमस्ते करने के लिए जब हम हाथ जोड़ते हैं तो हमारी उंगलियां एक-दूसरे को स्पर्श करती हैं जिससे पैदा होनेवाले एक्यूप्रेशर से हमारी आंखों, कानों और दिमाग पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
इसके अलावा हाथ मिलाने की जगह नमस्ते करने से हम सामने वाले व्यक्ति के संपर्क में नहीं आते हैं, जिसकी वजह से उसके हाथों के बैक्टीरिया हमारे संपर्क में नहीं आते हैं.
3- मांग भरना
शादीशुदा महिलाएं अपने मांग में सिंदूर भरती हैं और इस परंपरा के पीछे भी वैज्ञानिक तर्क छुपा हुआ है. बताया जाता है कि सिंदूर में हल्दी,चूना और मरकरी होता है जो शरीर के ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है. सिंदूर महिलाओं में यौन उत्तेजना बढ़ाता है जिसके चलते विधवा औरतों के सिंदूर लगाने पर पाबंदी होती है.
4- तिलक लगाना
किसी भी मांगलिक कार्य के दौरान महिलाएं और पुरुष अपने माथे पर तिलक लगाते हैं. इसके पीछे वैज्ञानिक मान्यता है कि कुमकुम या तिलक लगाने से हमारी आंखों के बीच माथे तक जानेवाली नस में एनर्जी बनी रहती है. तिलक लगाने से चेहरे की कोशिकाओं में ब्लड सर्कुलेशन बना रहता है.
5- जमीन पर बैठकर खाना
आज भी अधिकांश घरों में लोग अपने परिवार के सदस्यों के साथ जमीन पर बैठकर खाना खाते हैं. जमीन पर पालथी मारकर बैठने को एक योग आसन माना गया है. इस आसन में बैठकर खाने से दिमाग शांत रहता है और पाचन क्रिया दुरुस्त होती है.
6- कान छिदवाना
कान छिदवाना भारतीय परंपराओं में शामिल है. सदियो पुरानी इस परंपरा के पीछे जो तर्क बताया गया है उसके मुताबिक कान छिदवाने से इंसान की सोचने की शक्ति बढ़ती है. वैज्ञानिक तर्क के अनुसार कान छिदवाने से बोली अच्छी होती है और कानों से होकर दिमाग तक जानेवाली नस में ब्लड सर्कुलेशन बना रहता है.
7- सिर पर चोटी
हिंदू धर्म में आज भी अधिकांश ब्राह्मण अपने सिर पर शिखा रखते हैं. इस शिखा के बारे में कहा जाता है कि सिर पर जिस जगह पर चोटी रखी जाती है उस जगह पर दिमाग की सारी नसें आकर मिलती हैं. जो एकाग्रता बढ़ाने, गुस्से को कंट्रोल करने और सोचने की शक्ति को बढ़ाने में मदद करती हैं.
8- उपवास रखना
हिंदू धर्म में उपवास रखने की परंपरा बहुत पुरानी है. आयुर्वेद के अनुसार व्रत से पाचन क्रिया अच्छी होती है. एक रिसर्च के अनुसार व्रत रखने से कैंसर का खतरा भी कम होता है. इसके साथ ही दिल की बीमारियां और डायबिटीज जैसी बीमारियों का खतरा कम होता है.
9- तुलसी की पूजा
आज भी अधिकांश घरों में तुलसी का पौधा लगाकर उसकी पूजा की जाती है. वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार तुलसी का पौधा इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने में मदद करता है. यह एक आयुर्वेदिक औषधि भी है जिसका इस्तेमाल कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है.
10- मूर्ति की पूजा
हिंदू धर्म में लोग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मूर्ति पूजा करते हैं. मूर्ति पूजा के पीछे छुपे वैज्ञानिक तर्क के अनुसार मूर्ति दिमाग को एक जगह पर स्थिर रखने में मदद करती है.
गौरतलब है कि हिंदू धर्म में इन परंपराओं को काफी महत्व दिया गया है जिसका लोग सदियों से पालन करते आ रहे हैं और विज्ञान भी इन परंपराओं के आगे नतमस्तक है.
Thursday, February 14, 2019
मेरी कमजोरी और .....ताकत
मैं भावुक हूँ , बहुत ज्यादा, इसे बोलचाल की भाषा में इमोशनल कहा जाता है । सभी लोग पर सच्चा प्यार है पर लालच और स्वार्थ से घृणा । लोभी, झूठे, मक्कार, आदि को तिरस्कृत निगाहों से देखता हूँ । बदले की भावना भावुक ह्रदय होने के कारण तुरन्त गुस्सा आने के बाद भी थोड़ी ही देर में सागर में आई अचानक तूफान के पश्चात हृदय और मन एकदम शांतचित हो जाता है । जीवन में कभी भी बदले की भावना से कार्य नहीं किया हूँ । मैं दम्भी नहीं हूँ और नाही अहंकारी । अपने से छोटों, कनीज़ों और अधीनस्थों को कभी भी लिखित या दुर्भावनापूर्ण व्यबहार नहीं किया हूँ । यद्द्पि कि मैं एक कठोर प्रशासक हूँ और डांट तक हीं में मैं विश्वास करता हूँ । नियम से विपरीत कार्य किया जाना बिल्कुल पसंद नहीं है और जान बूझकर सपने में भी गलती नहीं कर सकता हूँ । पैरवी और रसूख के बल पर गलत कार्य किये जाने के दबाब को दुगने प्रहार से ढकेल देता हूँ । पैरवी और जानबूझकर अज्ञानी दीखने वाले व्यक्ति पसंद नहीं है । साफगोई मेरी दिनचर्या है ।
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