राजनीति की मजबूरी
राजनीति एक चौसर का खेल है चाहे राजतंत्र हो या लोकशाही या अराजकशाही ।
कुछ लोग भ्रम पाल रखे हैं कि लोकशाही में चौसर का खेल नहीं खेला जाता है और टकटकी लगाए बैठे इस उम्मीद में है कि लोकशाही में हम कामयाब होंगे ।
कुछ लोग यह भी मान बैठे हैं कि फ़लाँ व्यक्ति लोकशाही के लिए एक ईमानदार, आदर्श, देशभक्त, सर्वकालिक महान जन नेता है ।
मैं मान चुका हूँ कि राजनीति और कूटनीति में चोली दामन का सम्बंध है । इसे मजबूरी कह सकते हैं अर्थात मजबूरी की राजनीति ।
पर मेरी समझ से आजकल राजनीति के लिए सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीति की मजबूरी बन गयी है । राजनीति की इस मजबूरी में लोकशाही, संस्था, न्याय, विकास, देशभक्ति, राष्ट्रीयता, बेरोजगारी, गरीबी सभी इस प्रकार के शब्दों का मायने हर कोई अपने हिसाब से गढ़ना शुरु कर देता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
हर कोई राजनीति की इस मजबूरी में अपने लिए एक व्यक्ति को प्रतीक मानकर लोकशाही में भगवान मान लेता है । पर प्रश्न है कि देश की कोई तो संस्कृति होगी, कोई तो एक चीज़ देश के लिए आदर्श होगा जिससे प्रतीक माना जायेगा ।
वर्तमान में कई गांधी तक को आलोचना करते नहीं थकता है । आलोचना तो छोड़िए अपशव्दों की भी एक सीमा होती है , सरेआम सार्वजनिक रुप में शव्दों का प्रयोग करना शुरू हो गया है । हम अपने को श्रेष्ठ समझ बैठे हैं और कोई भी फैसला लेकर थोप देते हैं और दल के भीतर कोई अन्य को कोई की अभिव्यक्ति तो दूर परिचर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझते हैं । निर्णय सुनाने वालों का अनुयायी इस लोकशाही में तरह तरह के तर्क-कुतर्क से अपने अराध्यस्वरूप नेता को सत्य प्रमाणित कराने में सारी ऊर्जा लगाते जाता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
इस प्रकार की राजनीति, जिसमें राजनीति की मजबूरी बन गयी है, जिसमे राष्ट्र को आनेवाले समय में कुछ भी अवशेष बचाना मुश्किल हो जाएगा, के लिए सिर्फ राजनेता ही दोषी नहीं है बल्कि हम भी इस धर्मयुद्द में कौरवों का पक्ष के लिए बराबर का दोषी हैं ।
राजनीति एक चौसर का खेल है चाहे राजतंत्र हो या लोकशाही या अराजकशाही ।
कुछ लोग भ्रम पाल रखे हैं कि लोकशाही में चौसर का खेल नहीं खेला जाता है और टकटकी लगाए बैठे इस उम्मीद में है कि लोकशाही में हम कामयाब होंगे ।
कुछ लोग यह भी मान बैठे हैं कि फ़लाँ व्यक्ति लोकशाही के लिए एक ईमानदार, आदर्श, देशभक्त, सर्वकालिक महान जन नेता है ।
मैं मान चुका हूँ कि राजनीति और कूटनीति में चोली दामन का सम्बंध है । इसे मजबूरी कह सकते हैं अर्थात मजबूरी की राजनीति ।
पर मेरी समझ से आजकल राजनीति के लिए सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीति की मजबूरी बन गयी है । राजनीति की इस मजबूरी में लोकशाही, संस्था, न्याय, विकास, देशभक्ति, राष्ट्रीयता, बेरोजगारी, गरीबी सभी इस प्रकार के शब्दों का मायने हर कोई अपने हिसाब से गढ़ना शुरु कर देता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
हर कोई राजनीति की इस मजबूरी में अपने लिए एक व्यक्ति को प्रतीक मानकर लोकशाही में भगवान मान लेता है । पर प्रश्न है कि देश की कोई तो संस्कृति होगी, कोई तो एक चीज़ देश के लिए आदर्श होगा जिससे प्रतीक माना जायेगा ।
वर्तमान में कई गांधी तक को आलोचना करते नहीं थकता है । आलोचना तो छोड़िए अपशव्दों की भी एक सीमा होती है , सरेआम सार्वजनिक रुप में शव्दों का प्रयोग करना शुरू हो गया है । हम अपने को श्रेष्ठ समझ बैठे हैं और कोई भी फैसला लेकर थोप देते हैं और दल के भीतर कोई अन्य को कोई की अभिव्यक्ति तो दूर परिचर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझते हैं । निर्णय सुनाने वालों का अनुयायी इस लोकशाही में तरह तरह के तर्क-कुतर्क से अपने अराध्यस्वरूप नेता को सत्य प्रमाणित कराने में सारी ऊर्जा लगाते जाता है ।
कोई व्यक्ति कभी भी देश हो सकता है क्या ? कितना ही महान कोई एक व्यक्ति क्यों न हो जाये वह देश या उससे राष्ट्रीय मूल्य या राष्ट्र की पहचान नहीं होती है ।
राष्ट्र की पहचान नागरिकों की संस्कृति, सभ्यता, रहन सहन, रीति रिवाज, धर्म, पूजा पद्धति आदि के साथ साथ विभिन्न संस्थानों के मूल्य, न्यायिक प्रणाली, प्रशासनिक निर्णय आदि की संवैधानिक निष्पक्षता पर निर्भर करती है ।
इस प्रकार की राजनीति, जिसमें राजनीति की मजबूरी बन गयी है, जिसमे राष्ट्र को आनेवाले समय में कुछ भी अवशेष बचाना मुश्किल हो जाएगा, के लिए सिर्फ राजनेता ही दोषी नहीं है बल्कि हम भी इस धर्मयुद्द में कौरवों का पक्ष के लिए बराबर का दोषी हैं ।