बचपन के सुबह भोर भिनसारे
काश कोई लाता बचपन के वो दिन,
सुबह कड़कती ठंड में,
दालान के पुआल पर,
इम्तहान के भय का बोझ,
और इस इम्तहान में पायदान बरकरार रखने का भय,
मां के भय से कोई आकाश में शुक्र तारे की आहट की जिक्र करता,
पुआल पर मेरे करवट से खर्र सुनाई देती,
अलसाई,मलती कुम्हलाई, अधखुली,
बन्द होने को आतुर मेरे नयन कोसती मुझको,
बैलों की घंटियों और पुआल काटने की मशीन की आवाज,
कुआँ की लट्ठा की कर्र की आवाज,
रोज रोज की घर्र घर्र कर्कशा सी लगती,
लगता कि रात के बाद, बिन आधी रात के भोर, भिनसारे आ जाती है,
मेरे चीनदादा, मां की पुकार ई कोढ़िया उठेगा, सुनकर जोर से बोलते,
कखनिये उठा था अभी तो पेशाब करके सोया है,
शुकून देती शब्द, फिर सोने की जुगाड़ में रजाई खींचते,
चीनदादा की आवाज आती उठलें रे,
ई छौंड़ा लात के देउता है ,
रोज रोज एके बात, झट उठ!
उठ हियई न की मद्धिम आवाज से शुरु होती दिनचर्या ।
काश कोई लाता बचपन के वो दिन,
सुबह कड़कती ठंड में,
दालान के पुआल पर,
इम्तहान के भय का बोझ,
और इस इम्तहान में पायदान बरकरार रखने का भय,
मां के भय से कोई आकाश में शुक्र तारे की आहट की जिक्र करता,
पुआल पर मेरे करवट से खर्र सुनाई देती,
अलसाई,मलती कुम्हलाई, अधखुली,
बन्द होने को आतुर मेरे नयन कोसती मुझको,
बैलों की घंटियों और पुआल काटने की मशीन की आवाज,
कुआँ की लट्ठा की कर्र की आवाज,
रोज रोज की घर्र घर्र कर्कशा सी लगती,
लगता कि रात के बाद, बिन आधी रात के भोर, भिनसारे आ जाती है,
मेरे चीनदादा, मां की पुकार ई कोढ़िया उठेगा, सुनकर जोर से बोलते,
कखनिये उठा था अभी तो पेशाब करके सोया है,
शुकून देती शब्द, फिर सोने की जुगाड़ में रजाई खींचते,
चीनदादा की आवाज आती उठलें रे,
ई छौंड़ा लात के देउता है ,
रोज रोज एके बात, झट उठ!
उठ हियई न की मद्धिम आवाज से शुरु होती दिनचर्या ।
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